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क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था छात्रों के साथ न्याय कर रही है?

पिछले कुछ सालों में अगर शिक्षा में आये बदलावों की बात करें तो अनेकों योजनाओं के बावजूद खासकर सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में भरी गिरावट आयी है. 2003 में सरकार सर्व शिक्षा अभियान लायी. जिसमे हरेक बचे को स्कूल तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया. ये वो समय था जब सरकारी स्कूलों का रसूख बना हुआ था. शहरों कस्बों के अलावा अन्य जगहों पर प्राइवेट स्कूल दस्तक ही दे रहे थे. सर्व शिक्षा अभियान से बच्चों को स्कूल पहुँचाने का लक्ष्य तो कुछ हद तक पूरा भी हुआ. इसी कारण हिमाचल का साक्षरता प्रतिशत 83% से ऊपर जा पहुंचा. धीरे धीरे प्राइवेट स्कूल खुलते रहे और लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकल कर प्राइवेट स्कूलों में भेजने लगे. आज ये हालात इस हद तक पहुँच गए कि अधिकतर सरकारी स्कूलों में वही बच्चे रह गए जिनके माता पिता प्राइवेट स्कूलों का खर्चा उठाने में सक्षम नहीं हैं.


प्राइवेट स्कूल में ऐसा क्या है जो सरकारी स्कूल में नहीं, ये अलग से चर्चा का मुद्दा है. लेकिन सरकारी स्कूलों में ऐसा क्या हुआ कि लोग सरकारी स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ने भेजने से हिचकिचाने लगे? आखिर ऐसा क्या हुआ कि लोग अधिक शिक्षित और अनुभवी शिक्षकों कि अपेक्षा उन शिक्षकों पर भरोसा जताने लगे जो उन सरकारी स्कूल के शिक्षकों से पिछड़ गए वही सरकारी शिक्षक की नौकरी पाने में. यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक खुद प्राइवेट स्कूलों को तरजीह देते हैं अपने बच्चों की शिक्षा के लिए. क्या सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया? कदम तो बहुत उठाये, मिड डे मील, उड़ान जैसी बहुत से कार्यक्रम चलाये शिक्षा का अधिकार क़ानून लाया गया लेकिन उन सब का शिक्षा के स्तर पर क्या असर हुआ?

कुछ 8-10 साल पहले से तुलना करें सरकारी स्कूलों कि तो लगेगा कि एक दौर बीत गया. रिकॉर्ड में हम भले ही साक्षरता दर में प्रदेश का दूसरा स्थान है लेकिन शिक्षा स्तर कि बात करें तो हालात इस हद तक ख़राब हो चुके हैं कि आठवीं कक्षा तक के कई बच्चों को सही ढंग से लिखना नहीं आता, हिंदी तक पढ़ने में दिक्कत होती है, गणित के साधारण से गुणा भाग के सवाल नहीं किये जाते. दसवीं कक्षा में पांचवी छठी लेवल के सवाल नहीं आते. तो वो दसवीं के पेपर कैसे पास करेंगे? ये कहानी किसी एक स्कूल की नहीं है बहुत से स्कूलों की होगी, सिर्फ हिमाचल की नहीं है दूसरे राज्यों की होगी.

शिक्षा के अधिकार के तहत शुरू की गयी नो डिटेंशन पालिसी ने भी शिक्षा के स्तर को यहाँ तक पहुंचने में एक अहम् किरदार निभाया है. स्कूल में सजा न देने के फरमान से बच्चों में डांट के डर से पढ़ाई करने की बंदिश पहले ही ख़त्म हो चुकी थी लेकिन फेल होने का डर ख़त्म होने से न पढ़ने की प्रवृति को और बल मिला. धरना ऐसी बन गयी की जब फेल होंगे ही नहीं तो पढ़ाई में ज़ोर लगाके क्या करना जबकि अगली कक्षा में बैठना ही है. और इस आदत असर दसवीं कक्षा के बोर्ड की परीक्षा में पड़ने लगा. पिछले कुछ सालों में दसवीं का परिणाम 50-60% तक गिर गया. सरकारी स्कूलों में ये प्रतिशत और भी नीचे चला गया. बहुत से स्कूलों न 10% से कम तथा कुछ न 0% परिणाम भी दर्ज किया.

आखिर कमीं कहाँ रह गयी? शिक्षा में कंप्यूटर, स्मार्ट क्लास तथा अन्य तकनीकों के बावजूद भी शिक्षा का स्तर ऊपर जाने के बजाए गिरता चला गया. इसके लिए कौन जिम्मेवार है? यहाँ दोष बच्चों को नहीं दिया जा सकता. बचपन जीवन की ऐसी अवस्था है की उन्हें जैसे सांचे में ढाल दिया जाये वैसे बन जायेंगे. अगर प्राथमिक कक्षाओं में ही पढ़ाई के प्रति रूचि बना दी जाये तो किसी विद्यार्थी को कभी कोई समस्या नहीं आएगी लेकिन इसके विपरीत यहाँ पर कमी रह जाये तो उसे पूरी कर पाना बहुत मुश्किल है.

पिछले एक डेढ़ साल से एस.ऍम.सी. से जुड़े होने के बाद कुछ चीज़ें समझ आयी जो शिक्षा के स्तर को यहाँ तक लेन के लिए उत्तरदायी हैं. शैक्षिक प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण अंग है शिक्षक. शिक्षक ही हैं जो इस व्यवस्था को चलाते हैं. लेकिन कहीं न कहीं आज के शिक्षकों में शिक्षा के प्रति समर्पण की भावना में कुछ कमी आयी है. शिक्षा सिर्फ एक नौकरी तक सिमट गयी है. एक शिक्षक के कन्धों पर बच्चों के भविष्य, समाज और राष्ट्र की जो ज़िम्मेवारी है उस पर से शिक्षकों न आँखें फेर ली हैं. हालाँकि अभी भी बहुत से शिक्षक हैं जो पूरी निष्ठा से अपने दायित्व को निभा रहे हैं लेकिन कुल मिलाकर शिक्षक समुदाय में अपने कम के प्रति समर्पण तथा प्रयासों में कमी आयी है जिसका सीधा असर शिक्षा के स्तर पर पद रहा है. उच्च अधिकारियों द्वारा समय समय पर निरिक्षण तथा मूल्यांकन न होने के कारण भी शिक्षकों में सही ढंग से काम करने का दबाव नहीं रहता. शिक्षा के प्रति सरकार का उदासीन रवैया भी शिक्षा की इस हालत के लिए काफी हद तक से ज़िम्मेवार है. सिर्फ पालिसी ले आने से सुधर नहीं हो जाते. उन्हें सही ढंग से अम्ल में लाना और उनके प्रभावों के अनुसार उनका संशोधन करना भी बहुत ज़रूरी होता है.

इसके अतिरिक्त अभिभावकों तथा स्कूल प्रबंधन कमिटियों का रोल भी बहुत अहम् है. खासकर गांवों के अभिभावकों को लगता है की बच्चे को स्कूल भेज दिया तो उनका काम ख़त्म. वहीँ स्कूल प्रबंधन कमेटी के सदस्यों को इसी बात का ज्ञान नहीं होता की उनकी जिम्मेवारियां क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं. शिक्षकों और अभिभावकों के बीच समन्वय के न होने की वजह से भी किसी छात्र की कमियों को जानने तथा उन्हें दूर करने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जाता.

शिक्षा ही एकमात्रा साधन है जिसकी सहायता से समाज में गरीबी और कुरीतियों को दूर किया जा सकता है तथा एक बेहतर समाज का निर्माण हो सकता है. अगर हम 10-15 वर्षों के पश्चात् एक समृद्ध भारत देखना चाहते हैं तो हमें आज से ही एक बेहतर शिक्षा के लिए काम करना होगा. इसके लिए सरकार, अधिकारी, अध्यापक, अभिभावक तथा समाज को मिल कर काम करना होगा.

इस लेख को ज़रूर पढ़ें और अपने विचार साँझा करें कि आपको क्या लगता है प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में? आज शिक्षा प्रणाली में क्या-क्या कमियां हैं? और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है. आज की शिक्षा आने वाले समय में देश तथा समाज का भविष्य तय करेगी. इसके लिए आज शिक्षा के सन्दर्भ में एक संवाद स्थापित करने की ज़रूरत है. अगर आप इस लेख से सहमत हैं तो इसे शेयर करके और लोगों तक पहुंचाएं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा विचार और टिपण्णियां मिल सके. अपने विचार नीचे कमेंट में लिख सकते हैं.

Article written by Sunil Dogra, Chairman of the Society.

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